"ये ख़बर बस आम है"
हर सुबह की तरह गोयल साहब हॉल अखबार पढ़ने गए...
"गुड मार्निंग गोयल साहब"
"गुड मॉर्निंग मिश्रा जी, सुबह-सुबह ये अखबार किसी दवा से कम काम नहीं करती है"...
"बिल्कुल सही कहा आपने गोयल साहब"
गोयल साहब ने जैसे ही अखबार का पहला पन्ना देखा वो दिल की दर्द से तड़प उठे ऐसा लगा मानो उनके किसी अपने ने ही उनपर जानलेवा हमला कर दिया हो...
"अगर वैभवी यह खबर देखगी तो क्या गुजरेगी उस पर..? खुद को तो संभाल लूंगा पर उसे कैसे सम्भालूंगा..? वो मुझसे उनके पास चलने की ज़िद करेगी... पर बार-बार उसका तिरस्कार होते हुए मैं नहीं देख सकता"- गोयल साहब ने मन ही मन सोचने लगे...
तभी वैभवी चाय की कप लेकर हाल में आती हैं...
गोयल साहब- अन्दर चलो यहां बहुत गर्मी है...
वैभवी- कहां गर्मी है यहां.. ठीक तो लग रहा है...
चाय का कप गोयल साहब को देते हुए अख़बार उनसे मांगती है...
वैभवी- लाइये आज का अख़बार दीजिये, आपने तो पढ़ लिया होगा..
गोयल साहब- क्या रखा है इन अखबारों में, वही रोज़-रोज़ की खबरें...राजनितिक बहस..चोरी-डकैती, लूट-पाट..दुर्घटना में कई लोगों की मौत...बस यही सब...रहने दो तुम क्या करोगी पढ़ कर...
वैभवी- जो भी है, मुझे अख़बार दीजिये आप...
गोयल साहब- आज से तुम्हारी बच्चियों की छुट्टियां ख़त्म हो रही है...वैसे भी वो आज से आएंगी तुमसे कढ़ाई का काम सिखने... जाओ जाकर उनके आने की तैयारी करो...
वैभवी- वो कोई मेहमान नहीं जो उनके आने की तैयारी करू, आप भी क्या बोल रहे है...वैसे भी वो सब शाम में आती है...
गोयल साहब- ठीक है, मेरे कपड़े प्रेस कर दो फिर...
वैभवी- वो तो कल रात में ही कर दिए थे मैंने... आप अखबार दीजिये मुझे और चाय पीजिये...
गोयल साहब धीरे से अख़बार का पहला पन्ना निकल कर अखबार वैभवी को दे देते है...
वैभवी- हां, वही रोज़-रोज़ की खबरें...
गोयल साहब- मैं तो पहले ही कह रहा था...
शाम को वैभवी बच्चियों को काम सीखा रही होती है, तभी उन में से एक उसे बधाई देती है...
चित्रा- बधाई हो मैडम जी...
वैभवी- किस बात की बधाई दे रही हो तुम मुझे...
चित्रा- अरे ! पुरे शहर को ये ख़बर पता है.. और आप इससे बेखबर हैं ?
वैभवी- पर खबर क्या है बच्चा ?
चित्रा अख़बार का पहला पन्ना वैभवी को दिखती है...
चित्रा- ये देखिये मैडम जी...है न ख़ुशी की बात...
वैभवी खबर देखते ही काँप सी जाती है, पर उसे ख़ुशी भी होती है... वो अखबार का पन्ना ले कर भागते हुए बगीचे में जाती है जहां, गोयल साहब बेंच पर बैठे होते है... अखबार का पन्ना उन्हें दिखते हुए वैभवी रो पड़ती है...
गोयल साहब- मुझे पता था कि तुम्हें तकलीफ होगी इसलिए, मैंने तुमसे ये बात छिपाई वैभवी... तुम मुझसे उनके पास चलने की ज़िद करोगी, पर तुम्हारा अपमान होते हुए मैं नहीं देख सकता...
वैभवी- मैं आपसे उनके पास चलने की ज़िद कभी नहीं करूंगी...आपने ये कैसे सोच लिया कि मैं आपको अपमानित होते हुए देख सकती हूँ... सही कहा आपने मुझे तकलीफ हुई...और ख़ुशी भी हो रही है कि आज हमारा बेटा अपनी कंपनी का सी.ई.ओ. बन गया है, पर उससे ज़्यादा गम इस बात का है कि, वो हमें वृद्धा-आश्रम में छोड़ गया है... हमने कितने आरमानों से उसे पढ़ाया, उसकी हर ज़रूरतों को पूरी की, और इस काबिल बनाया की आज वो इतना बड़ा आदमी बन पाया है...
गोयल साहब- वैभवी, इंसान की ज़िंदगी में अनेक पड़ाव आते है, कितनी मुश्किलें आती है पर फिर भी इंसान ज़िंदगी जीता है.. कल क्या हो क्या पता ? जैसे आज हमारे बेटे ने हमें घर से बहार निकला है, हो सकता है कल को उसका बेटा भी उसके साथ यही करे... जो जैसा है ठीक है, हमारा फ़र्ज़ था उसे पढ़ना-लिखना, बड़ा करना वो हमने कर दिया, बस उससे बदले में उम्मीद मत रखो... ज़िंदगी आसान हो जाएगी... इस समय के साथ मैं जी रहा हूं, तुम भी सिख लो... न कोई अपना होगा, न तकलीफ होगी...
वैभवी- आपका साथ हैं तो मुझे किसी बात की तकलीफ नहीं है... "बाकी खबरों की तरह ये ख़बर बस आम है"...
अखबार को बेंच पर छोड़ कर गोयल साहब और वैभवी अन्दर चले जाते है.....
बहुत खूब
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