Monday, 15 May 2017

वो तेरा लम्हा, वो मेरा लम्हा...



एहसासों की लड़िया, सुने अनसुने किस्से..
सिमटती जा रही उन जंजीरों में,
जिन्हे जकड़ रखा है ख़ामोशी ने.. 
वो तेरा लम्हा, वो मेरा लम्हा...

तेरे लबों से खनकते वो बेबाक शब्द,
जर्रे-जर्रे को बहकाती, उस खनखनाहट से खुद को भींगो.. 
हर न पाक शब्द को पाक साफ़ कर जाता,
वो तेरा लम्हा, वो मेरा लम्हा...     
  
है कसूर जाने-अनजाने किस शख़्स का,
साजिश करते इन अनछुए पहलुओ का..
देखा करती थी सिर्फ किताबों में तेरा चेहरा,
अब तो है हर नज़र पर सिर्फ तेरा पहरा ...
कभी मुख़ातिब हो.. कभी रु-ब-रु तो हो,
वो तेरा लम्हा, वो मेरा लम्हा...

नशीली ब्यार बया करती..
फ़ूलों की खुशबूओं से सनी वक़्त के चादर को,
बहारों के धागें में पिरोहे, छाया उस समां का...
उनमें खेलती हसीन फिज़ाओ का,
हमारी आज़माइशों से भरा आलम बेफ़िक्री का.. 
वो तेरा लम्हा, वो मेरा लम्हा ...           

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