Saturday, 15 September 2018

हर रोज तुझे मैं लिखती हूं..



हूं खुली किताब जैसी, हर पन्ना सब पढ़ जाते है..
तेरे नाम के पन्ने को कोई पढ़े, उससे पहले पलट देती हूं..
बात एक समय की नहीं है, हर रोज तुझे मैं लिखती हूं..

मुद्दतों के बाद भी, उतनी ही शिद्दत है मेरी दुआओं में..
आखें नम नहीं होती, बस गला भर आता है..
सिर झुकाते ही, तेरे नाम की सदा गूंज जाती है..

तेरी एक-एक बात से मोहब्बत जैसा कुछ है..
यूं ही नहीं हर शब्द मेरे जहम में हर वक्त रहते है..
मोहब्बत जैसा सच में कुछ है,
पर ये मोहब्बत नहीं, उससे भी ऊपर है..

     

No comments:

Post a Comment