Friday, 31 August 2018

बंदिशों से आगे..


गहराते जख्मों की उम्र ही क्या है ?
साथ चल रहे, वक्त का मलहम लगाना बाकी है..
कई पुराने किस्से मिटते जाते है,
मिटे स्याही को अपना अंश बनाना बाकी है..
न जाने चुप क्यों हो जाती है ये जबां,
उन खामोशी में अनकहे अफसाने और भी है..

शाम हसीन है, हिस्सा हूं उस महफिल का,
कई जाम को पीना अभी बाकी है..
खुद को काबिल बनाने की लत में,
तलब के जश्न को मनाना अभी बाकी है..
चुभता है इरादों के ठहराव हर बार,  
ख्वाहिशों के सफर में मोड़ और भी है..

एक मामूली तस्वीर है, अकश् आईना है,
फिके रंग उभरना अभी बाकी है..
पाक मोहब्बत की फलक से,
खुशियां उझालना अभी बाकी है..   
यूं ही नहीं दिल में उठी कसक कहती है,
बंदिशों से आगे, एक जहां और भी है..



Saturday, 25 August 2018

वक्त लगता है...




साधु के भेष में वो दरिंदा बन, उसकी इज़्जत तार-तार कर जाए..
सच्चाई की वीणा बजा वो, झूठ का परचम लहराएं..
हजारों बार कुरेदा जाता है, उसके जख्मों को..
वो चिखती-चिल्लाती है, अदंर से बार-बार रोती है..

दबा दी जाती है उसकी आवाज, क्योंकि सबसे ऊपर है समाज..
इंसाफ के इंतजार में जख्म नहीं भरता, हर बार नया चोट है उभरता..
लहु-लुहान हुई आत्मा, सहम कर रह जाती है..
सुखे हुए आंखों के आंसू, कितना कुछ बोल जाती है..

सब कहते है वक्त नहीं लगेगा, सब ठीक हो जाएगा..
जरा समझना इस बात को ;
वक्त-वक्त की बात में उसे हर वक्त जीना-मरना पड़ता है..
कभी रखकर देखना खुद को उसकी जगह पर ;
नासूर भी कुछ होता है, शायद इसका अंदाजा लग जाए...







Saturday, 11 August 2018

देखा है उन आंखों को चमकते हुए...



टूट कर बिखर गए सपने तो उनका क्या कसूर,
खनक की टीस अश्कों के साथ बह जाती है..

देखा है उन आंखों को चमकते हुए,
जिससे आंसूओं की लकीर खींच जाती है..
लबों से बय़ा कर पाना शायद मुश्किल हो,
उसकी सिसकियां हर सांस का बोझ उठाती है..

मिट्टी का घर बना खिलखिला उठते है,
बचपन का हर रंग उस आशियाने में भरते है..
नंगे पांव में हुए छालो की फिक्र नहीं,
दुनिया की सैर टायर के झूले पर किया करते है,

रोज ख्वाहिशों का जनाज़ा निकलता है,
न जाने कितने अरमान दफ़न हो जाते है..
खुल कर जिंदगी को जीने से पहले ही, 
पेट की आग में बचपन झुलस जाता है..






Saturday, 4 August 2018

कुछ अधूरा-सा अब पूरा होने को है...




शाख से टूटा पत्ता स्याही का मोहताज है,
अधूरे अंतरे को मुखड़े की तलाश है.. 
बेशक कई सपने पनपते है इन आंखों में,
ख्वाहिशों का जिक्र रहता है अनकही बातों में.. 
कुछ अधूरा-सा अब पूरा होने को है,
कुछ खामोशी अब गुनगुनाने को है.. 

आम किस्से है सारे इस ज़माने के,
    उस जहां के अलग ही अफ़साने है..    
फलक भी जरा-सा नज़र आता है उसके आगे,
यहां तो पावं रखने के लिए भी जमीन कम है.. 
कुछ अधूरा-सा अब पूरा होने को है,
कुछ खामोशी अब गुनगुनाने को है.. 

 बंदिशे अब दगा दे जाती है,
उलझनों का रिश्ता अब अपना-सा लगता है.. 
मुकम्मल होने को है किसी का साथ,
कश्मकश में न जाने क्यों है मेरे जज़्बात.. 
कुछ अधूरा-सा अब पूरा होने को है,
कुछ खामोशी अब गुनगुनाने को है..