Saturday, 25 August 2018

वक्त लगता है...




साधु के भेष में वो दरिंदा बन, उसकी इज़्जत तार-तार कर जाए..
सच्चाई की वीणा बजा वो, झूठ का परचम लहराएं..
हजारों बार कुरेदा जाता है, उसके जख्मों को..
वो चिखती-चिल्लाती है, अदंर से बार-बार रोती है..

दबा दी जाती है उसकी आवाज, क्योंकि सबसे ऊपर है समाज..
इंसाफ के इंतजार में जख्म नहीं भरता, हर बार नया चोट है उभरता..
लहु-लुहान हुई आत्मा, सहम कर रह जाती है..
सुखे हुए आंखों के आंसू, कितना कुछ बोल जाती है..

सब कहते है वक्त नहीं लगेगा, सब ठीक हो जाएगा..
जरा समझना इस बात को ;
वक्त-वक्त की बात में उसे हर वक्त जीना-मरना पड़ता है..
कभी रखकर देखना खुद को उसकी जगह पर ;
नासूर भी कुछ होता है, शायद इसका अंदाजा लग जाए...







Saturday, 11 August 2018

देखा है उन आंखों को चमकते हुए...



टूट कर बिखर गए सपने तो उनका क्या कसूर,
खनक की टीस अश्कों के साथ बह जाती है..

देखा है उन आंखों को चमकते हुए,
जिससे आंसूओं की लकीर खींच जाती है..
लबों से बय़ा कर पाना शायद मुश्किल हो,
उसकी सिसकियां हर सांस का बोझ उठाती है..

मिट्टी का घर बना खिलखिला उठते है,
बचपन का हर रंग उस आशियाने में भरते है..
नंगे पांव में हुए छालो की फिक्र नहीं,
दुनिया की सैर टायर के झूले पर किया करते है,

रोज ख्वाहिशों का जनाज़ा निकलता है,
न जाने कितने अरमान दफ़न हो जाते है..
खुल कर जिंदगी को जीने से पहले ही, 
पेट की आग में बचपन झुलस जाता है..






Saturday, 4 August 2018

कुछ अधूरा-सा अब पूरा होने को है...




शाख से टूटा पत्ता स्याही का मोहताज है,
अधूरे अंतरे को मुखड़े की तलाश है.. 
बेशक कई सपने पनपते है इन आंखों में,
ख्वाहिशों का जिक्र रहता है अनकही बातों में.. 
कुछ अधूरा-सा अब पूरा होने को है,
कुछ खामोशी अब गुनगुनाने को है.. 

आम किस्से है सारे इस ज़माने के,
    उस जहां के अलग ही अफ़साने है..    
फलक भी जरा-सा नज़र आता है उसके आगे,
यहां तो पावं रखने के लिए भी जमीन कम है.. 
कुछ अधूरा-सा अब पूरा होने को है,
कुछ खामोशी अब गुनगुनाने को है.. 

 बंदिशे अब दगा दे जाती है,
उलझनों का रिश्ता अब अपना-सा लगता है.. 
मुकम्मल होने को है किसी का साथ,
कश्मकश में न जाने क्यों है मेरे जज़्बात.. 
कुछ अधूरा-सा अब पूरा होने को है,
कुछ खामोशी अब गुनगुनाने को है.. 

Thursday, 26 July 2018

तुम्हारी-मेरी बातें...



आज तुम्हें देखे काफी वक्त हो गया.. आजकल बारिश हो रही, आसमान में काले बादल दिखते है.. जिसकी वजह से बहुत दिनों से तुम दिख ही नहीं रही.. अब क्या करुं ये मेरी आदत हो गई है.. कही भी रहूं बिना तुम्हें एक झलक देखे मन ही नहीं मानता.. सब पूछते है इतनी रात को छत पर क्या करने जा रही हो ? कितनी भी रात हो जाए तुम्हें देखे बिना.. तुमसे बातें किये बिना वो दिन अधूरा-सा लगता है.. सबको लगता है ये मेरी आदत है रात को सोने से पहले छत पर टहलना, हां आदत जरुर है..पर तुमसे मिलने की.. तुम्हें देखने की.. तुमसे बातें करने की.. अब लोग शायद पागल समझे.. पर ये तुम्हारी और मेरी बातें, फिर वो कुछ भी समझे क्या फर्क पड़ता है.. आज भी जब वो गाना गुनगुनाती हूं जो तुम्हारे पसंदीदा गानों में से एक हुआ करता था.. तेरे बिना जिंदगी से कोई सिकवा तो नहीं... लगता है तुम यहीं पास ही तो हो, और कहोगी स्पीकर में जरा बजाना इसको.. बातों पर धुल की परत जम गई है, पर यादें ताउम्र ताजा रहेंगी.. तुम्हें हमसब को छोड़ कर गए लम्बा अरसा होने जा रहा है.. पर आज भी मैं तुम्हें अपने करीब ही महसूस करती हूं.. कहा था ना मैनें, तुम्हारी कमी कोई पूरी नहीं कर सकता..और ना वो जगह मैं किसी को दूंगी.. आज भी कई बातें मन में ही रह जाती है..मन करता है जोर से चीख कर तुम्हें अपनी हर बात बताऊं..जहां भी हो बस मेरी हर बातें सुन लो.. अब तुम्हारे इस पसंदीदा गाने का बोल ही सच लगता है.. तेरे बिना जिंदगी भी लेकिन जिंदगी तो नहीं.. जिंदगी नहीं.. जिंदगी नहीं..."  

Saturday, 23 June 2018

वो खफ़ा भी है, अपना-सा भी है...



वो अनदेखा आसमां है, अनछूआ स्पर्श है,
ख़ामोश ज़ुबां पर वो शायरी का हर्फ़ है..
अनकही किस्सों का सार है,
सुलगती रेत में शीतल ब्यार है..
वो खफ़ा भी है, अपना-सा भी है...

बिना पर के भी हर सपनों की उड़ान है,
हक़ीकत से परे दिल में दबी अरमान है.. 
जिसके होने से ज़िंदगी कुछ ख़ास है,
सबसे अलग जिसका एहसास है..  
वो खफ़ा भी है, अपना-सा भी है...

वो गजलों में लिपटी हुयी किसी के दिल की आवाज़ है,
अंतरे को जो मुखड़ा दे वो उस तराने की साज़ है..
मसरूफ़ इस ज़माने में फ़ुरसत का पल है,
सुकून की ज़िंदगी का तराशा हुआ कल है..
वो खफ़ा भी है, अपना-सा भी है... 




Monday, 9 April 2018

यूं बचपन न खोता..

P.C- Saurabh Kumar

पेट की भूख ने ज़िंदगी के हर रंग दिखा दिए,
कंधो को बस्ते की जगह ज़िम्मेदारी के बोझ ने झुका दिए..
मासूम-सी हंसी के पीछे हर रोज़ नया ज़ख्म उभरता है,
दर्द के आंसू में भी इन आंखों में सपना पनपता है..
चाहत के फूल से भरा इनका जीवन का गुलदस्ता होता, 
अगर ज़माने की गलियों में यूं बचपन न खोता..