Friday 3 February 2017

आगोश


 खामोशी में खोया, न जाने कहां गुम है ये मन... अल्फाजों को खुद में समेट,चारो ओर गौर से देख... उन हसीन झरोखों के आगोश में डुबा है ये पल... क्या हुआ जो ऐसे देख हमें लोग पागल समझते है... पागलपन की आगोश में डुबा है ये पल... जिक्र तक नहीं करेगे लबों से, न आखों से इशारा करेगें... सुनना है तो सुन ले मेरी खामोशी को, पढ़ना है तो पढ़ ले मेरी आखों को... खुद के आगोश में डुबा है ये पल... जर्रा-जर्रा जानता है किस्सा हमारा, वक्त-वक्त की बात है... कुछ किस्से पूरे होते है, कुछ अधूरे... उस अधूरेपन की आगोश में डुबा है ये पल...परवाह न किसी की, न डर किसी का आज... ऐसा तो नहीं कि सब इस खामोशी के मोहताज है... नहीं देनी मुझे ये खामोशी किसी को... अपनी ही धुन के आगोश में डुबा है ये पल... रहती है जिसकी यादें पल-पल सताते, करती है बिना वजह ये खामोशी जिसकी बातें.. दे जाती है, कभी हंसी.. कभी नमी.. उन नमी के आगोश में डुबा है ये पल... रफ्ता-रफ्ता कोई डोर खिंचती जा रही उस ओर, खिंचे हुए डोर के रिश्तो को संभाले... उन उलझे धागों की आगोश में डुबा है ये पल... सागर से गहरी, ये प्यास.. सूरज के रौशनी से तेज, ये चमक.. किसी बात का इशारा करती, न जाने क्यों मुझे उस ओर ले जा रही है... इस छोर की आगोश में डुबा है ये पल... मखमली रात की तरह,  तोरों की बारात तरह... लाखों शहनाईओं की गूंज, ये बारात, मुझे उस पार का नजारा दिखाती हुए... एक हल्की-सी मुस्कान चहरे पर छोड़ गई... नजारों की आगोश में डुबा है ये पल... होश नहीं मुझे इस जहां की, चुराये हुए लम्हों की तलब है... नहीं रखना इस दुनिया से मतलब, किसी की दुनिया में खोई... तलब की आगोश में डुबा है ये पल... कोई न देख पाया, न समझ पाया इस साये को... परछाई ना सही, अपना सा महसूस होता है... खास की तो मुझे आदत नहीं, पर यह एहसास बहुत खास है... इस खसियत की आगोश में डुबा है ये पल...           


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